लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी
भाग 32
संध्या का समय हो गया था । देवयानी पूजा करने के लिए शिवालय जाने लगी । एक साधिका उसके साथ चलने लगी तो देवयानी ने उसे टोक दिया । "अब मैं कोई छोटी बच्ची नहीं हूं । मैं अब एक तरुणी बन चुकी हूं । यदि तुम्हें भी पूजा करनी हो तो मेरे साथ चलो , अन्यथा कुटिया में ही रहकर मेरा इंतजार करो" ।
"किन्तु आचार्य का आदेश है कि आपको अकेला नहीं छोड़ा जाये । यदि आचार्य को पता चल गया तो वे बहुत क्रोधित होंगे" । साधिका ने अपनी विवशता प्रकट कर दी ।
"आचार्य मेरे पिता हैं और एक पिता को अपनी पुत्री सदैव बच्ची ही लगती है । लेकिन मैं अब बच्ची नहीं रही हूं । मैं एक युवती बन चुकी हूं और मुझे किसी के साथ की आवश्यकता नहीं है , समझी तुम" ? देवयानी ने आंखें दिखाते हुए साधिका से कहा ।
"आप चाहे कितना ही डांट लें, मार लें लेकिन मैं आचार्य के आदेश का पालन करने के लिए विवश हूं । आचार्य के कोप से कौन बचा है आज तक ? मैं उन लोगों की सूची में अपना नाम लिखवाना नहीं चाहती हूं जो आचार्य का कोपभाजन बने हैं । इसलिए मुझे क्षमा करें देवी" । इतना कहकर वह साधिका देवयानी के पीछे पीछे चल दी
देवयानी मन मसोस कर रह गई । वह इससे अधिक और कुछ कर भी नहीं सकती थी । आश्रम के समस्त लोग आचार्य की आज्ञा का उल्लंघन करने की बात सोच भी नहीं सकते थे । बेचारी साधिका की तो बिसात ही क्या थी ? साधिका को साथ चलते देखकर देवयानी ने पूजा की थाली साधिका को पकड़ा दी ।
"गुरू पूजन उत्सव" संभवत: समाप्त हो चुका था । बहुत सारे शिष्य उस रास्ते से अपनी अपनी कुटिया में जा रहे थे । कुछ शिष्य देवयानी के आगे आगे चल रहे थे और कुछ उसके पीछे चल रहे थे । आगे वाले शिष्य आपस में इस प्रकार से बातें कर रहे थे ।
"क्या व्यक्तव्य दिया था उसने ? सबको मंत्रमुग्ध कर दिया । उसका संभाषण धाराप्रवाह था । उसने ऐसे ऐसे तर्क प्रस्तुत किये जो अकाट्य थे और आज तक किसी ने ऐसे तर्क प्रस्तुत भी नहीं किये थे । अपने समस्त विरोधियों को चारों खाने चित्त कर दिया था उसने । गजब की प्रतिभा का धनी है वह । आश्रम में आए उसे मुश्किल से दो चार दिन ही हुए हैं किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह यहां के प्रत्येक विद्यार्थी से परिचित है" । एक युवक किसी की प्रशंसा के पुल बांध रहा था ।
देवयानी के कानों में जब ये बात पड़ी तो उसे समझ में नहीं आया कि वे लोग किसके बारे में बातें कर रहे थे ? उसने साधिका की ओर प्रश्नवाचक नजरों से देखा कि क्या पता उसे कुछ पता हो लेकिन साधिका ने संभवत: उन लोगों का वार्तालाप सुना ही नहीं था । वह तो अपनी ही दुनिया में मग्न होकर उसके साथ साथ चल रही थी । साधिका का भावशून्य चेहरा देखकर देवयानी उसकी स्थिति समझ गई थी। इसलिए वह यह जानने के लिए कि वे किसके बारे में बातें कर रहें हैं, उन लोगों का वार्तालाप सुनने में निमग्न हो गई ।
ऐसी ही बातें पीछे वाले युवक भी कर रहे थे । पीछे चलने वाला एक युवक कह रहा था "न जाने कैसा जादू कर दिया है उसने कि आचार्य उसकी प्रशंसा करते थकते ही नहीं हैं । काश ! ऐसा भाग्य हमारा भी होता ? कभी कोई हमारी भी प्रशंसा करता ? न जाने कहां से अपना भाग्य लिखवा कर लाया है ये कच ? थोड़े ही दिनों में वह यहां पर सबका चहेता बन गया है " । उसके मन से एक आह सी निकली थी ।
देवयानी को अब समझ में आ गया था कि यह गुणगान "कच" का ही हो रहा था । जिसे देखो वही व्यक्ति कच का प्रशस्ति गान कर रहा था । क्या वह इतना प्रतिभाशाली है कि पिता श्री भी उसकी प्रशंसा के पुल बांध रहे हैं ? वैसे पिता श्री प्रशंसा करने के मामले में तो बहुत कृपण हैं पर आज पता नहीं क्या हो गया है उन्हें जो "उसकी" प्रशंसा पर प्रशंसा किए जा रहे हैं । पर मुझे इससे क्या ? इससे मेरा हृदय दग्ध क्यों हो रहा है ? मैंने तो उसे अभी तक देखा भी नहीं है फिर भी इतनी ईर्ष्या, इतना द्वेष ? आश्रम का मामला है इसलिए वो जानें और पिता श्री जानें , मुझे क्या लेना देना है" ? उसने सिर झटक कर विचारों का प्रवाह रोकने की चेष्टा की किन्तु जब एक बार विचार मन मस्तिष्क में घर बना लेते हैं तब उन्हें अंदर प्रवेश करने से रोका नहीं जा सकता है । वे तो वायु की तरह जबरन गृह प्रवेश कर लेते हैं ।
देवयानी तेज कदमों से चलने लगी तो साधिका को उसके साथ चलने के लिए दौड़ लगानी पड़ रही थी । दोनों जनी शिवालय पर पहुंच गईं और शिवजी की पूजा करने लगीं । बहुत सारे छात्र भी शिवजी के दर्शन के लिए आ रहे थे । देवयानी उन छात्रों को देखने लगी । "इन्हीं में से कोई एक 'कच' होगा । पर जिस तरह से उसका गुणगान हो रहा है उससे तो लगता है कि वह कुछ भिन्न सा होगा ? संभवत: बड़ा सा मस्तक, लंबे केश ,चेहरे पर एक आभामंडल, मजबूत कंधे , बलिष्ठ भुजाऐं , चौड़ा सीना होगा उसका । पर इनमें तो मुझे कोई भी युवक "पृथक" सा नजर नहीं आ रहा है" । देवयानी ने शिवालय में चारों ओर नजर घुमाई लेकिन किसी भी युवक में वह "तेज" नजर नहीं आया जैसा 'कच' के बारे में बताया गया था ।
"मैं भी कितनी मूर्खा हूं । मैं उस अजनबी व्यक्ति के बारे में सोच ही क्यूं रही हूं ? मुझे क्या करना है उस 'कच' के बारे में जान कर । उसे देखकर ? वह चाहे जैसा भी हो , मेरा उससे क्या संबंध" ? देवयानी ने अपने मन को समझाने की बहुत कोशिश की पर मन तो मन है , वह एक बार जिधर मुड़ गया , फिर उसी दिशा में भागता है । मन रूपी अश्व की गति बहुत तेज होती है ।
विचारों के सागर में घिरी हुई देवयानी साधिका के साथ वापस अपनी कुटिया पर आ गई ।
श्री हरि
5.7.23
वानी
12-Jul-2023 10:04 AM
Nice
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Varsha_Upadhyay
11-Jul-2023 09:08 PM
👏👌
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Hari Shanker Goyal "Hari"
11-Jul-2023 10:44 PM
🙏🙏
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